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अमृत कुम्भ-2013, पृष्ठ – 4

AMRIT KUMBH - 2013
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एकात्म ध्यान(अदृश्य) एवं एकात्म समर्पण(दृश्य)

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”मैं उन सभी ईश्वर के अवतारों और शास्त्रों, धर्माचार्यों, सिद्धों, संतों, महापुरूषों, भविष्यवक्ताओं, तपस्वीयों, विद्वानों, बुद्धिजिवीयों, व्यापारीयों, दृश्य व अदृश्य विज्ञान के वैज्ञानिकों, सहयोगीयों, विरोधीयों, रक्त-रिश्ता-देश सम्बन्धियों, उन सभी मानवों, समाज व राज्य के नेतृत्वकर्ताओं और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संविधान को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने मुझे व्यक्त होने के लिए, मेरे व्यक्त होने के पहले, वर्तमान में और भविष्य के लिए, इस मनुष्य समाज में मानव मन और साधन का निर्माण कर मुझे व्यक्त होने के लिए व्यापक आधार बना, मुझे व्यक्त होने पर विवश कर दिये। अगर ये न होते तो निश्चित रूप से मैं न होता और मुझ जैसा निश्चित रूप से कोई व्यक्त हो भी नहीं सकता।“                                                                                            -लव कुश सिंह ”विश्वमानव“

”शास्त्र शब्द से अनादि अनन्त ”वेद“ का ही बोध होता है। धर्म शासन में वेद ही एकमात्र समर्थ है। पुराणादि अन्य धर्म ग्रन्थों को ”स्मृति“ संज्ञा देते हैं और जहाँ तक वे श्रुति के अनुगामी हैं, वहीं तक उनका प्रमाण्य है, आगे नहीं। सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नही होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।“(भगवान रामकृष्ण तथा संघ, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-2), ”वेद“ का अर्थ है- ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है- मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है – वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।-(हिन्दू धर्म, पृष्ठ-27)                                                                                 – स्वामी विवेकानन्द

”मैं इस लव कुश सिंह नामक भौतिक शरीर को प्रणाम करता हूँ जिसके माध्यम से और उसका प्रयोग कर मैंने स्व को व्यक्त करने के लिए एवं मानव कल्याण हेतू इस शास्त्र को आपके समक्ष प्रस्तुत किया। साथ ही इस शरीर के माध्यम से नकारात्मक व सकारात्मक चरित्रों को व्यक्त कर विश्व के दर्पण के रूप में इसे प्रस्तुत किया। जिससे मानव यह जान सके कि मैं इन सब से मंुक्त था। मैं प्रारम्भ से अन्त तक केवल उस शरीर पर ही ध्यान करता रहा हूँ जिससे यथार्थ धर्म की स्थापना करता हूँ शेष सभी तो साधन मात्र हैं। ध्यान के लिए यही मेरी सत्य विधि रही है। मंत्र, मूर्ति, प्रतीक, शब्द इत्यादि तो केवल उपविधियाँ हैं जिससे भटकाव भी सम्भव है।“ – विश्वात्मा/विश्वमन

”जितने दिनों से जगत है उतने दिनों से मन का अभाव- उस एक विश्वमन का अभाव कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्वमन से ही निर्मित हो रहा है क्योंकि वह सदा ही वर्तमान है। और उन सब के निर्माण के लिए आदान-प्रदान कर रहा है।“

-स्वामी विवेकानन्द (धर्म विज्ञान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-27)

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