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अमृत कुम्भ-2013, पृष्ठ – 49

AMRIT KUMBH - 2013
AMRIT KUMBH - 2013
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पाँचवें युग – स्वर्णयुग में प्रवेश का आमंत्रण

जिस प्रकार त्रेतायुग से द्वापरयुग में परिवर्तन के लिए वाल्मिकि रचित ”रामायण“ आया, जिस प्रकार द्वापरयुग से कलियुग में परिवर्तन के लिए महर्षि व्यास रचित ”महाभारत“ आया उसी प्रकार कलियुग से पाँचवें युग-स्वर्णयुग में परिवर्तन के लिए ”विश्वशास्त्र“ सत्यकाशी क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है, से व्यक्त हुआ है। प्रत्येक अवतार के समय शास्त्राकार अन्य होते थे और शास्त्र में नायक अलग होता था परन्तु ”विश्वशास्त्र“ का नायक और शास्त्राकार एक ही है इसलिए अवतार के होने न होने पर कोई विवाद नहीं होगा क्योंकि यह सदैव सिद्ध रहेगा कि यह शास्त्र है तो शास्त्राकार भी रहा होगा। यही इस अन्तिम अवतार की कला थी जो अवतारों के अनेक कलाओं में पहली और अन्तिम बार प्रयोग हुआ है। अवतारों के प्रत्यक्ष से प्रेरक तक की यात्रा में पूर्ण प्रेरक रूप का यह सर्वोच्च और अन्तिम उदाहरण है। जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु में स्थित आत्मा प्रेरक है उसी प्रकार मनुष्य के लिए यह शास्त्र पूर्ण प्रेरक के रूप में सदैव मानव समाज के समक्ष रहेगा।
इस ”विश्वशास्त्र“ को आप सभी को समर्पित करने के बाद ईश्वर के पास कुछ भी शेष नहीं है और ईश्वर अपने कर्तव्य से मुक्त और मोक्ष को प्राप्त कर चुका है। निर्णय आपके हाथ में है कि आप ज्ञान-कर्मज्ञान का आस करेगें या समय का पास। यह पूर्णतः आप पर ही निर्भर हैै। केवल मन से युक्त होकर पशु मानव जीते है। संयुक्त मन से युक्त होकर जीना मानव का जीना है तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्त मन, ईश्वरीय मानव की अवस्था है। यह ”विश्वशास्त्र“ ही आपका अपना यथार्थ स्वरूप और आपका कल्याण कर्ता है।
हम वर्तमान में ब्रह्मा के 58वें वर्ष में 7वें मनु-वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, 28वें चतुर्युग का अन्तिम युग-कलियुग के ब्रह्मा के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम सम्वत् 2096 (सन् 2012 ई0) में हैं। वर्तमान कलियुग ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार दिनांक 17-18 फरवरी को 3102 ई.पू. में प्रारम्भ हुआ था। इस प्रकार अब तक 15 नील, 55 खरब, 21 अरब, 97 करोड़, 61 हजार, 624 वर्ष इस ब्रह्मा के सृजित हुए हो गये हैं
इस प्रकार दिनांक 21 दिसम्बर, 2012 दिन शुक्रवार (मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष, नवमी, विक्रम संवत् 2069) जिस दिन मायां सभ्यता का कैलेण्डर पूर्णता को प्राप्त किया है, से दसवें और अन्तिम महावतार लव कुश सिह ”विश्वमानव“ की ओर से युग का चैथा और अन्तिम युग- कलियुग का समय तथा काल का पहला अदृश्य काल समाप्त होकर युग का पाँचवाँ और अन्तिम युग – स्वर्णयुग तथा काल का दूसरा और अन्तिम काल – दृश्य काल दिनांक 22 दिसम्बर, 2012 दिन शनिवार (मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष, दशमी, विक्रम संवत् 2069) से प्रारम्भ होता है। और समस्त संसार के समक्ष और मनुष्य जीव के अस्तित्व तक शनिचर और शंकर रूपी ”विश्वशास्त्र“ उसके ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए सामने सदैव व्यक्त रहेगा।
अब आप मेरे ईश्वरीय समाज में आने के लिए स्वतन्त्र है जिसके लिए आपको कहीं आना-जाना नहीं है। आप जिस समाज, धर्म, सम्प्रदाय, मत इत्यादि में हैं, वहीं रहे। सिर्फ ”विश्वशास्त्र“ को पढ़े और पूर्णता को प्राप्त करें क्योंकि कोई भी विचारधारा चाहे उसकी उपयोगिता कालानुसार समाज को हो या न हो, यदि वह संगठन का रूप लेकर अपना आय स्वयं संचालित करने लगती है तो उसके साथ व्यक्ति जीवकोपार्जन, श्रद्धा व विश्वास से जुड़ता है न कि ज्ञान के लिए। पाँचवें युग-स्वर्णयुग और ईश्वरीय समाज में प्रवेश करने के लिए आप सभी को मैं लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ हृदय से आमंत्रित करता हूँ।

मैं-विश्वात्मा ने भारतीय संविधान की धारा-51 (ए):
नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य अनुसार अपना धर्म कत्र्तव्य निभाया

आध्यात्मिक एवं पदार्थिक वैज्ञानिक सत्य पर आधारित मूल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तथा उसके व्यापकता अर्थात् बहुरुप के उदाहरण सहित स्थापना की नीति को प्रस्तुत करना जो मेरा धर्म था उसे पूर्ण किया गया। अब भारत देश के हाथों में गेंद है कि वह कब इसका प्रयोग सार्वजनिक प्रमाणित काल में भारत को विश्वगुरु और विश्व नेतृत्व सहित विश्व शान्ति-एकता-स्थिरता-विकास-सुरक्षा-प्रबन्ध के लिए प्रयोग करता है। भारत में इसका मूल लाभ- बेरोजगारी समाप्त करने में है क्योंकि संसाधनों के होते हुए भी कर्मज्ञान के अभाव में बेरोजगारी बढ़ रहीं है। कर्मज्ञान के अभाव में शिक्षा निर्भरता को बढ़ा रही है। तन्त्रों की वास्तविक स्थिति, भारत का विश्वव्यापी वैचारिक पहचान, सुदृढ़ अर्थशक्ति का निर्माण, रुपये का मूल्य बढ़ना, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग, पूर्ण मानव का निर्माण इसके अलग लाभ हैं। सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त अब मेरी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि भारत सहित विश्व में इतने तैयार बुद्धि शक्ति युक्त मानव है कि इस सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के आधार पर इसके शाखाओं को विकसित करते हुए कार्य को सम्पन्न कर सकते हैं। प्रस्तुत सिद्धान्त और व्याख्या में किसी भी प्रकार का उचित संशोधन स्वागत योग्य होगा। हमारा लक्ष्य सार्वजनिक प्रमाणित मार्ग द्वारा रचनात्मक, सकारात्मक, समन्वयात्मक स्वरुप को विकसित करना है यह सार्वजनिक कार्य है जो सार्वजनिक बुद्धि शक्ति द्वारा ही पूर्ण विकसित होगा। मात्र किसी एक भ्रम से सम्पूर्ण स्वरुप गलत सिद्ध नहीं हो सकता और न ही किसी भ्रम की किसी के द्वारा पाने में मुझे कोई कष्ट है। जो स्वरुप उपलब्ध नहीं था, जिसकी आवश्यकता थी, जिसकी विवशता थी, जो मानवता था उसे उपलब्ध कराया गया। मैं जहाँ हूँ वहीं मेरा स्थान है वहीं मेरा स्वर्ग है। मैं हुकूमत नहीं मैं मात्र दिशाबोध, निर्विरोध, अन्तिम मार्ग, मार्गदर्शक, मूलबीज और सेवक हूँ।
निवेदन है कि अपनी दृष्टि से मुझे देखकर मुझे अपने मार्ग का बाधक न समझे। मुझे सिर्फ मेरी दृष्टि से देखें और समझें। यह न समझें कि मैं किसी मानवीय पदों पर बैठने की कोशिश करुँगा। मेरे योग्य जो पद चाहिए उसे मैं प्राप्त कर चुका हूँ। वहाँ कोई प्रतिद्वन्दी नहीं। वहाँ कोई चुनाव नहीं। वह निर्विरोध है। उसे प्राप्त कर पाना मानवीय बस की बात नहीं। हाँ तुम्हें यदि अपनी दिशा से किसी मानवीय पद की आवश्यकता हो तो उसके लिए अपनी दिशा से कर्म करो। मेरा पद छीनना भी तुम्हारे बस की बात नहीं क्योंकि शरीर तुम्हारे पास है परन्तु नाम-रुप-गुण कहाँ से लाओगे। वह भी सत्य-सिद्धान्त का जो कि मानवीय जीवन में सिर्फ एक बार और अन्तिम बार ही व्यक्त होता है और वह व्यक्त किया जा चुका है। मैं सिर्फ विश्व का दर्पण हूँ जो सत्व (मार्ग दर्शक व विकास), रज (निर्माण) तथा तम (विनाश) से युक्त होते हुए भी उससे मुक्त है।
राष्ट्र के सजग और समर्पित नागरिक होने के कारण भारतीय संविधान के धारा-51(ए) के अन्र्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य के अनुसार मैंने अपना कत्र्तव्य व धर्म निभाया है।

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